हेमराज का अमूर्तनः आकारों का निराकार
रवींद्र त्रिपाठी ,राष्ट्रीय सहारा
ने मेरी पहचान अमूर्त कलाकार की है। पर मैं पारिभाषिक अर्थ में अमूर्त कलाकार हूं, इसमें मुझे संदेह है।
इतना जानता हूं कि कलाकार हूं। बरसों से पेंटिंग कर रहा हूं। आगे भी करूंगा। पर मैं किसी परिभाषा के
तहत आता हूं, ये नहीं जानता।‘हेमराज ने ये तब कहा जब मैं उनकी कलाकृतियां देख रहा था और उनसे बातें कर रहा था। पिछले कईबरसों से देश के शीर्षस्थ अमूर्त कलाकारों में उनकी गणना की जाती है। पर हेमराज का कहना है- `जिस दौर में और जिस भावना से आकृतिमूलक कला पश्चिम में शुरू हुई उसका मुझसे नाता नहीं है। मैं जब पेंटिग करता हूं तो सूफी संगीत सुनता हूं। खासकर नुसरत फतेह अली खान या साबरी बंधुओं की कव्वाली। कई बार कव्वालियों के बोल या उनके लफ्ज मुझे समझ में नहीं आते। फिर भी मैं धुन को सुनता हूं और लय से प्रभावित होता है। और उस दौरान जो अनुभूति होती है वही मेरी कला में उतरती है। पश्चिम के अमूर्त कलाकार, चाहे वो वसीली कादिंस्की हो या कोई और, सूफी संगीत तो नहीं सुनते थे। न ही उनकी कला-रचना की प्रक्रिया के दौरान सूफी संगीत का कोई योगदान था। फिर मैं उनके अर्थ में अमूर्त कलाकार कैसे हूं? पेंटिंग मेरे लिए एक प्रार्थना की तरह है। जैसे एक सुफी इबादत करता है मैं पेंटिंग बनाता हूं।‘हेमराज का ये कथन उस हर कलाकार के अंदर की बात हो सकती है जो निष्ठा और लगन से बरसों कला साधना करता रहा हो लेकिन कला में उसकी सक्रियता किसी बाहरी दबाव या कारण की वजह से नहीं, बल्कि भीतरी इच्छा से होती है। दुनिया, जिसमें आलोचक से लेकर कला गैलरियां शामिल हैं, कलाकार को किसी परिभाषा में बांधना चाहती है। किंतु हर कलाकार दुनिया में अपनी ही तरह का होता है। वह किसी और जैसा नहीं होता। वह अकेला `पीस’ होता है। हेमराज भी अपनी तरह के हैं। दुनियावी अर्थों में वे अमूर्तन के कलाकार हैं लेकिन किसी दूसरे अमूर्त कलाकार की तरह नहीं है। उनकी एक अपनी कला भाषा है जो नितांत निजी है।
सूफियों के बारे में एक किस्सा उन्होंने सुना था कि जब एक सूफी संत का निधन होता है तो वह अपने शिष्य को एक किताब सौंपता है। जब वह शिष्य उस किताब को खोलता है तो पाता है उसके अंदर कुछ होता नहीं है, सिर्फ कोरे पृष्ठ होते हैं। ये कोरे पृष्ठ ही हेमराज के लिए अमूर्तन के आधार हैं। वे ये भी कहते हैं कि इस किस्से में कितनी सचाई है ये तो उनको मालूम नहीं, लेकिन इसके भीतर जो मर्म है उसका रिश्ता कला से है। कोरे कागजों की किताब एक शून्य है। इस शून्य को दिखाना ही कला है- हेमराज के लिए।
हेमराज मितभाषी हैं। अपनी कला के बारे में वे किसी भारीभरकम शब्दावली का प्रयोग नहीं करते। लेकिन जब बोलते हैं तो उनके अंदाज में विनोदप्रियता होती है और इसी कारण उनको सुनते हुए सामने वाला भी अक्सर हंस पड़ता है। अपनी एक पेंटिंग दिखाते हुए उन्होंने पूछा कि आपको इस पूरे कैनवास पर `रस’ किस कोने में नजर आ रहा है? मैं अचकचाया तो वो हंसते हुए कहा- `एक प्रदर्शनी में यही सवाल एक सज्जन ने किया था। वे आज भी मिल जाते हैं और इस तरह के बेतुके प्रश्न करते रहते हैं। किसी कलाकृति का `रस’ किसी एक कोने या हिस्से में नहीं होता है। वह तो संपूर्ण कलाकृति में होता है। और संपूर्ण को देखना कला कृति के हर हिस्से को गौर से देखना है।‘ हेमराज का कैनवास अक्सर बड़ा होता है। वे तैलरंग में काम करते हैं। बहुत नजदीक से देखने पर ही उसकी बारीकियां नजर आती हैं। अगर आप आठ-दस फीट की दूरी से उनकी कलाकृति को देखते हैं तो लगता है कि पूरे कैनवास पर कुछ रंगों और रेखाओं का साम्राज्य है। इस तरह का इंप्रेसन बनता है। उनकी रेखांएं अक्सर गोलाकार और वृत्ताकार के बीच होती है। और प्रभावी भी। लेकिन जब आप उनकी कलाकृति के बेहद करीब जाते हैं, एक या दो फीट की दूरी से उनको देखते हैं तो पाते हैं हर हिस्से की बुनावट या भरावट अलग तरीके से की गई हैं। हर अंश में रंगों के अलग अलग टेक्सचर दिखते हैं। हर हिस्से पर रंगों की उपस्थिति अलग तरीके से होती है। हेमराज रंगों के अलावा रेखाओं को भी अपने विशिष्ट अंदाज में दिखाते हैं। ब्रश से बनी उनकी रेखाओं मोटी होती है। कुछ जगहों पर उनकी रेखाएं कैनवास को खुरचने से भी उभऱी होती है। यानी रंग लगाने के बाद खुरचने की प्रक्रिया। अक्सर वे ब्रश के पिछले हिस्से से खुरचते हैं। हेमराज कहते हैं कि उनकी पेंटिंग के फॉर्म कहीं बाहर से नहीं आता। यानी पूर्व निर्धारित नहीं होता। लेकिन वह होता है। वह भीतर से उभऱता है। करने के दौरान। और साथ वह फॉर्म टूटता भी जाता है। बनने के दौरान फॉर्म वैसा नहीं रहता जैसा पहले सोचा था। करने के दौरान फॉर्म का विघटन होता है।
विचार से हेमराज का अजीब रिश्ता होता है। जैसा कि उनका कहना है, उनकी कलाकृतियां किसी एक विचार या विचारधारा से पैदा नहीं होतीं। जब वे कला प्रक्रिया शुरू करते हैं तो उनके दिमाग में कई तरह के विचार घूमते होते हैं। ये आपस में गुत्थमगुत्था होते रहते हैं। इन झगड़ते विचारों को संभालना मुश्किल हो जाता है। उनको नियंत्रण में रखना मुश्किल होता जाता है। धीरे धीरे जब उनक विचारों के बीच का आपसी घमासान शांत होने लगता है तब कला प्रक्रिया शुरू होती है। हेमराज इसकी तुलना आसमान में घिरे बादलों से भी करते हैं। मिसाल देते हुए वे कहते हैं- `जब आसमान में बादलों का हूजूम रहता है जब वे एक दूसरे से टकराते हुए दिखते हैं। पर धीरे धीरे वे एक दूसरे से जुदा होते हैं। उन जुदा होते बादलों के बीच जो खाली जगह होती है, जो `स्पेस’ होता है, वही मेरी पेंटिंग है। उन खाली जगहों के बीच जो चाक्षुषता है उसी को मैं अपने कैनवास पर अंकित करता हूं। इसीलिए मेरी पेंटिंग में फॉर्म कोई विशिष्ट अर्थ नहीं पैदा होता है। अगर उसमें कोई दुनियावी अर्थ उभरने लगता है तो मैं उसे तोड़ देता हूं।‘
1968 में जन्में हेमराज ने दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स से बीएफए किया और फिर एमएफए। घर पर कला की पृष्ठभूमि नहीं थी लेकिन मन में उसे लेकर रुझान जरूर था। बचपन के दिनों में एकांत मिलने पर वे अखबारी कागज पर कुछ चित्र बनाते थे और फिर सबकी निगाहें बचाकर उनको मिटा भी देते हैं। वे चित्र किसी व्यक्ति या किसी खास आकार के नहीं होते थे। सिर्फ कुछ प्रयोग होते थे। लेकिन वही अमूर्तन के प्रति उनके लगाव की बुनियाद बने। हालांकि कॉलेज ऑफ आर्ट्स में उन्होंने आकृतिमूलक कला से शुरूआत की लेकिन धीरे धीरे उनका झुकाव उससे दूर होता गया। वहां राजेश मेहरा उनके गुरु थे। राजेश जी खुद एक बड़े अमूर्त कलाकार हैं। आजकल वे निष्काम योगी की तरह हो गए हैं। उनके साथ हुआ एक वाकया हेमराज सुनाते हैं। किसी ने राजेश मेहरा से हाल के दिनों में एक बार पूछा कि आज कल आप पेंटिंग कम करते हो, वजह? उन्होंने जवाब दिया – `यार, एक बार मसूरी चले गए तो उसका आनंद लिया। अब बार बार मसूरी जाने का क्या मजा है?’ उनका आशय शायद ये था कि किसी चीज को एक बार जान लो तो उसका जादू खत्म हो जाता है। क्षण का हेमराज की कला में खास महत्त्व है। उनका कहना है कि कला संबंधी कोई खयाल किसी खास क्षण में उभरता है और एक कलाकार के लिए जरूरी है कि उस क्षण को उसी समय पकड़ ले। ऐसे में इस बात का कोई मतलब नहीं होता कि आपके पास कौन सा माध्यम है- यानी कैनवास है या नहीं, रंग है या नहीं। बस जो भी मिले उसी से उस क्षण को पकड़ लो। चाहे कैनवास की जगह अखबारी कागज हो या रंग की जगह हाथों में पेंसिल या पेन हो, उसी से काम कर लेना चाहिए। वरना जो क्षण चला जाता है वह फिर वापस लौट कर नहीं आता। आप कैनवास लेने गए तब तक वह खयाल हाथों से और दिमाग निकल जाता है। दरअसल माध्यम पर बहुत जोर देना कलाकार के अहं का मसला है- ऐसा हेमराज का मानना है। उनके मुताबिक अहं की वजह से ही शाश्वतता की भावना उभरती है। वे कहते हैं -`मैं शाश्वत होना नहीं चाहता। अमरता की कोई आकांक्षा नहीं।‘ हेमराज जिस अमूर्तन को उभारते हैं उनमें रूप या आकृतियों का आभास होता है। लगता है कोई कलाकार किसी खास आकृति या आकृतियोंरूप को उभारना चाहता था, लेकिन बीच में उसका मन बदल गया और वह रूप में अरूप को खोजने और उभारने लगा। रूप से अरूप की यात्रा हेमराज की लगभग हर कलाकृति में दीखती है। जो रेखाएं और जो आकार उनके कैनवास पर उभरते हैं वो उस दिशा में ले जाते हैं जहां कोई `देस’ नहीं होता। और वो रंगों को भी अपने खास नजरिए से देखते हैं। `हर रंग एक मुखौटा लिए होता है।‘ हेमराज की ये बात एक उलटबांसी की तरह लगती है। आखिर रंग का कोई मुखौटा कैसे हो सकता है? पर जब आप उनकी कलाकृति को ध्यान से और देर तक देखते हैं तो महसूस करते हैं कि उनके कहने का आशय क्या है। जो रंग कैनवास पर महत्त्वपूर्ण होके उभरते हैं वो धीरे धीरे, एक कोने से दूसरे कोने तक अलग अलग छवियां या चरित्र लिए होते हैं। जैसे माना जाता है कि सांप अपने केंचुल छोड़ता जाता है वैसे ही रंग भी अपने केंचुल छोड़ते जाते हैं। उनका कोई एक चरित्र आखिर तक नहीं बना रहता। रंगों के इस खेल को समझना और समझाना भी हेमराज की कलाकृतियों की खासियत है। किसी खास रंग के कितने शेड्स हो सकते हैं, इसकी अनुभूति उनकी कलाकृति करातीहै। जो रंग उनके कैनवस पर थोड़ी देर पहले बहुत उदग्र नजर आया था, वह बारीकी से देखने पर धीरे धीरे शांत होने लगता है। और उसकी शांति की भी कई अवस्थाएं हैं। हेमराज बातचीत के दौरान याद दिलाते हैं कि नीला रंग अपने मिजाज में शांत माना जाता है। लेकिन वॉन गॉग ने अपनी कलाकृतियों में जिस तरह नीले रंग का प्रयोग किया उसमें अशांति और उद्विग्नता थी।यानी वॉन गॉग ने काम करने के दौरान नीले रंग के मुखौटे को फेंक दिया। वॉन गॉग ने दिखाया कि एक रंग रंग, कई तरह के मिजाज रखता है। कहते हैं कि एलएसडी का सेवन करनावाला व्यक्ति नशे के दौरान रंगों को मूल प्रकृति से अलग देखता है। लाल रंग उसे हरा लग सकता है और काला रंग पीला। यानी रंगों को आप किस मन:स्थिति में देखते हैं उससे इस बात का निर्धारण होता है कि वे किस तरह की है, या उनका चरित्र क्या है। धूप में हरा रंग जिस तरह का दिखता है कमरे की रोशनी में उससे अलग दिखेगा। एक गुस्से वाले आदमी को लाल रंग जिस तरह का दिखता है और संत स्वभाव वाले को उसी तरह का नहीं दिखेगा। इसलिए अलग अलग कलाकारों के यहां भी रंग एक जैसे नहीं दिखते। कोई आवश्यक नहीं कि `क’ नाम के कलाकार ने जिस ढंग से काले रंग को दिखाया हो, `ख’ नाम का कलाकार भी काले को वैसा ही दिखाए। इसीलिए हर कलाकार रंगों के भीतरी मिजाज का अन्वेषक होता है। हर रंग के अपने रहस्य होते हैं। कई अनदेखे पहलू होते हैं। हर रंग फरेबी होता है। उसके मूल स्वभाव को पकड़ना मुश्किल है या ये कहें कि उसका कोई मूल स्वभाव होता ही नहीं है। रंगों को लेकर हेमराज एक चुटकुला सुनाते हैं। वो इस तरह है- एक बार एक राजा को मालूम हुआ कि उसके राज्य पर हमला होनेवाला है। उसने सेनापति को बुलाकर कहा कि राज्य पर हमला होने वाला है इसलिए सुरक्षा की तैयारी करो। सेनापति ने सैनिको तक संदेश भिजवाया कि हमला हो सकता है इसलिए तैयार रहें। जिसने सैनिकों तक संदेश पहुंचाया उसके बोलने का लहजा कुछ ऐसा था कि `हमला’ `हलवा’ में बदल गया और सैनिकों ने समझा कि हलवे की तैयारी करो और वे इसी बात से खुश हो गए उनको खाने के लिए हलवा मिलने वाला है।
रंगों का चरित्र भी इसी तरह भिन्न भिन्न वजहों से अलग छवि या अलग ढांचे में ढल जाता है। लाल रंग किसी के लिए क्रांति का संदेश हो सकता है तो किसी के लिए शांति का।
आकृतिमूलक कला को भी हेमराज कलाकार के अहं से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि जब कोई कलाकार किसी लड़की का चित्र बनाता है तो चाहता है कि वह चित्र या आकृति का प्रभाव हमेशा बना रहे। लेकिन ऐसा होना कला नहीं जादू है और कलाकार जादूगर नहीं होता। आकृति में कला का मूल नहीं होता- ऐसा हेमराज का मानना है।
Comments
Post a Comment